खड़े इक दोराहे पे मैं और मेरा साया,
मैं जाना चाहूँ बाएँ, वो ले गया रास्ता दायां।
सुंदर था वो रास्ता जो मैं न चुन पाई,
पीछे-पीछे उसके क्यों इस राह चली आई।
बोला रास्ता ये जाएगा जहाँ तुझे है जाना,
जल्दी तो पहुँचाएगा, भले मुश्किल है ये माना।
पत्थरीली थी राह, भरे पड़े थे काँटे,
साथ तो वो चल रहा, पर चोट न मेरी बाँटे।
मैं चाहूँ वापिस जाना, न दे वो मुझको जाने,
ग़ायल मेरी हालत, फिर भी बात न मेरी माने।
देख मुझे मुस्काए वो—मतलब मैं न समझी,
क्या इस राह पहले भी आई मैं, थी इसी बात में उलझी।
कुछ दूर चलते ही मिली उम्र की कच्ची,
मेरी ही परछाई सी थी एक छोटी बच्ची।
आँखें उसकी नम थीं, माँग रही थी माफी,
कहती मेरी वजह से ही तेरा ख़ून बह रहा काफी।
ना मालूम था इक दिन तुझको देंगे दर्द ये काँटे,
फूल लिए जब निकली थी मैं, तोड़ इन्हें थे फेंके।
बात अजब ये सुन के, कुछ गूंजा मेरे मन में,
कोस के इसको क्या कम होंगे जख्म जो हैं इस तन पे।
“ना रो, तेरी न गलती कोई”—मैं बोली उसको हँस के,
“तू है इक मासूम, ये बात गाँठ बाँध ले कस के।”
माफ़ उसे कर चल दी आगे, क्या मैंने कुछ पाया?
मैं नहीं अकेली कम से कम, साथ तो है मेरा साया।
पर कब तक देगा साथ मेरा—दिन ढलने को आया है,
मंज़िल नहीं इस राह की, जिस राह तू मुझको लाया है।
जायज़ है तेरा शक़ करना, न दिखता हूँ मैं रात,
पर सच तो ये है मैंने कभी न छोड़ा तेरा साथ।
ये बस राह नहीं है, है हम दोनों का किस्सा,
बस तू न समझी पगली—मैं तो हूँ तेरा ही हिस्सा।


