वक़्त थोड़ा कम है मेरे पास,
मगर कुछ बातें ज़रूरी सी लगती हैं।
क्या पढ़ सकोगे वो अनकही,
जो मेरी साँसों में चुभती हुई सी रह गई है?
क्यों नहीं आती ज़ुबां पर,
क्यों हर बार थम जाती है?
शायद दूसरों की भाषा में
अपना मतलब खो देने से डरती है।
कोई जाती और धर्म में बाँटता,
तो कोई मेरे लफ़्ज़ों को है तौलता।
भाषाएँ तो बहुत हैं दुनिया में,
पर कोई मेरी नहीं बोलता।
मेरे ठहराव को जो चीर सके —
इन शब्दों में वो दम नहीं।
माना होंठों पर शोर है,
पर आँखों की ख़ामोशी भी कुछ कम नहीं।
ग़ौर करे तो, ख़ामोशी भी है एक भाषा।
जिसमें न जाने कितनी बातें की मैंने,
पर जवाब में मिली बस निराशा।
शायद इसलिए मैंने बोलना छोड़ दिया,
बस खुद से बातें करने लगी।
हर खाली साँस को पिरोकर,
जो कह न पाई — वो भी लिखने लगी।
कुछ निशान हैं मुस्कुराहटों पर,
अनसुनी जो मैं सिया जा रही हूँ।
अब किसी के पूछने का इंतज़ार नहीं,
कि इनके पीछे क्या ग़म है, जो छुपा रही हूँ।
फिर भी जो कभी पूछ लिया तुमने,
बताने को शब्द कुछ कम हैं मेरे पास।
अब और क्या ही कहूँ सिवाय इसके —
कि वक़्त थोड़ा कम है मेरे पास।


