मुट्ठी भर रोशनी में जहाँ, खिलते सफ़ेद फूल,
वो एक टुकड़ा आसमान का, हाँ, है मुझे कबूल।
इत्तेफ़ाक़ रखे जो मुझसे, हो वो एक ऐसी जगह,
एक किरण भी लगे ऐसे, जैसे नूर बरसता बे-पनाह।
सफ़ेद न रहे बन कर, बस निशानी पाकीज़गी की,
उसे भी तो हो हक़, सातों रंग बिखेरने की।
क्या पता उसके रंग फिर, बना दें इंद्रधनुष,
जिसे देख न जाने कैसे, पर हो जाए हर ज़ेहन खुश।
रास्ता जहाँ का जाता हो, निकल कर मेरी रूह से,
ख़्वाब है मेरा ऐसा, शायद मिले कभी हक़ीक़त से।
कभी जो बना सके, तुम वो क्यारी अगर,
रहूँगी मैं बस वहीं, चाहे जियूँ, चाहे मर कर।
मायूस न होना, जो मेरी ग़ैर मौजूदगी हुई न कबूल,
क्योंकि खिलूँगी उस क्यारी में रोज़, मैं बन कर वही सफ़ेद फूल।


