मेरी पहचान

जिंदगी के इस सफर में, मेरा वजूद ही खो गया कहीं,
नाम और घर की बात तो छोड़ो, मेरे वक्त पर भी आज मेरा हक़ नहीं।

सिखाया गया था मुझे, रखना सबको खुद से पहले,
सब तो आज निकल गए, लगता बस मैं ही रह गई अकेले।

सब कुछ बनी मैं, बेटी, बहन, बीवी, और माँ,
बस इसी सब में भूल गई मैं, बनना अपनी एक अलग पहचान।

लिस्ट तो मैंने भी बनाई थी, बहुत कुछ करना था बड़े हो कर,
काफी वक़्त तो वो दबी रही, अब ख़ाक है चूल्हे में जल कर।

घूमना जो चाहा मैंने, कहाँ जाना पति के साथ,
मायके तक न घुमाया उसने, भला यह भी हुई क्या कोई बात?

मुझसे भी तो कभी कोई मांगे, इजाज़त घर से निकलने की,
दो ताने मार सकूँ मैं भी, हिम्मत जो करे वो मचलने की।

खैर, ऐसे वेहम पाल कर, जाने मैं कहाँ जाऊँगी?
मौका जो कभी मिला भी, मैं यह सब तो न कर पाऊँगी।

मोमबत्ती जलती है बेख़बर, आस रखती है सवेरा देख पाएगी,
नहीं जानती पगली, जो खत्म न हुई, फिर भी बुझा तो दी ही जाएगी।

अरमान तो है वैसे मेरे भी, ख्वाहिशें भी मिल जाएँगी कहीं,
पर क्या फ़ायदा कहने का, जब किसी ने समझना कभी चाहा ही नहीं।

जीती रही मैं सब के लिए, चाहे हर ग़म छिपा कर,
मरने भी गई आज तो, फ़िक्र न करना, खाना ज़रूर जाऊँगी बना कर।

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